Monday, December 6, 2010

सविता
बुढ़ापा
बुढ़ापे की लाचारी है बिना पहिये की गाड़ी।
टूट जाता है जवानी का गुमान,
रुठ जाता है सौदर्यता की शान।
रह जाती है जिन्दगी में सिर्फ लाचारी,
जिन्दगी की कमायी पर जो सपने संजोये थे कभी,
कांच की टूकड़ों की तरह बिखर जाती है सारी।
जिन बच्चों को जान से ज्यादा चाहा,
खुशियां देनी चाही, स्पर्श से भी कतराते हैं।
बिना मांगे भीख भी देना नहीं चाहते हैं।
इच्छाओं और अभिलाषाओं पर लग गया है विराम,
बस राम नाम जपना रह गया है काम।
वक्त कांटे नहीं कटता जिन्दगी लम्हों का,
पल-पल लगता है कर्ज चुकाना है कई जन्मों का।
ईश्वर करे बुढ़ापा न आए, आये तो फिर बुढ़ापा ना लाये।
बुढ़ापे की लाचारी है, बिना पहिये की गाड़ी।






सविता

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