Thursday, December 30, 2010

झरझरिया का कमाल

हमारे उभरते भारत में शहर तरक्की की राह में पल-पल नया मुकाम बनाता जा रहा है। शहरों में बुनियादी सुविधाएं पलक झपकते हीं आंखों के सामने आ जाती है। लेकिन दूसरी ओर गांव जहां हमारी आत्मा बसती है, हम लाख तरक्की पर तरक्की कर ले। लेकिन हमारी जड़े हमेशा गांवों में ही रहेगी।
हम बात कर रहे हैं देश के सबसे गरीब कहे जाने वाले राज्य बिहार की। दूर-दराज के देहाती क्षेत्रों में आज भी बुनियादी सुविधाएं न के बराबर नजर आती है। गांव के लोग बीमार हो या कोई गर्भवती महिला खटिया पर ही टांग कर अस्पताल ले जाया जाता है।
इन सभी परेशानियों और दिक्कतों के बीच एक आशा की किरण दिखी है वो है झरझरिया। नाम सुन के कुछ अटपटा लगेगा, पर चीज है बड़े कमाल का, चलता है पेट्रॉल से, पर नाम है ठेलागाड़ी। जहां तक बैलगाड़ी की बात मोटरगाड़ियों के आने से इसका अस्तित्व मानों खत्म सी होती जा रही है। अब बैलगाड़ी गिने-चुने जगहों पर ही चलती है। शहरों में जहां इसका प्रयोग समान ढोने में किया जाता है। वहीं ग्रामीण इलाकों में झरझरिया का कमाल सभी के सर चढ़ कर बोल रहा है। अनाज, खाद या फिर किसी प्रकार की ढलाई का काम हो झरझरिया हर १० मिनट पर हाजिर मिलता है। झुंड के झुंड ग्रामीण इस पर चढ़कर नजदीकी बाजार में खरीदारी के लिए जाते हैं।

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