थूकने वाले कहां-कहां नहीं थूकते
सीढ़ी के कोने में, घर के दीवारों पर
ऑफिस के बेसिन में
थूकते-थूकते थूक लेते हैं भाग्य पर
फिर भी उनकी आंखे रहती है बंद
दिन-व-दिन हौसले होते हैं बुलंद
कोई पान खाकर थूकता है
तो कोई खैनी और कोई गुटखा
एक जमाना हुआ करता था थूकने का
अब बुढ़ा-बच्चा सभी है आदी थूकने का
आदी कहें या मजबूरी
जिंदगी की कम पड़ी धूरी
चबाते-चबाते जबड़े ने दिया जवाब
उन्हें शायद पता नहीं जिसे समझते हैं
मर्दांगनी, वही ढकेल रहा है नामर्दगी की
अब भी तो समझो जनाब।
Dear Savita Jee,
ReplyDeleteThe problems and mindset of the people would change only with the passage of the time, we only need to be aware and strong-willed of the problems and its solutions.
All the best
Prabhash Chandra Sharma