Wednesday, January 5, 2011

थूकने

थूकने वाले कहां-कहां नहीं थूकते
सीढ़ी के कोने में, घर के दीवारों पर
ऑफिस के बेसिन में
थूकते-थूकते थूक लेते हैं भाग्य पर
फिर भी उनकी आंखे रहती है बंद
दिन-व-दिन हौसले होते हैं बुलंद
कोई पान खाकर थूकता है
तो कोई खैनी और कोई गुटखा
एक जमाना हुआ करता था थूकने का
अब बुढ़ा-बच्चा सभी है आदी थूकने का
आदी कहें या मजबूरी
जिंदगी की कम पड़ी धूरी
चबाते-चबाते जबड़े ने दिया जवाब
उन्हें शायद पता नहीं जिसे समझते हैं
मर्दांगनी, वही ढकेल रहा है नामर्दगी की
अब भी तो समझो जनाब।

1 comment:

  1. Dear Savita Jee,
    The problems and mindset of the people would change only with the passage of the time, we only need to be aware and strong-willed of the problems and its solutions.
    All the best
    Prabhash Chandra Sharma

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